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ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य॓ देवमृत्विजम् ।
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होता॑रं रत्नधात॑मम् ॥१॥
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अग्निः पूर्वेभिरृषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
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स देवाँ एह वक्षति ॥२॥
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अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे ।
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यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥
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अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
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स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥
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अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
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देवो देवेभिरा गमत् ॥५॥
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यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
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तवेत् तत् सत्यमङ्गिरः ॥६॥
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उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
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नमो भरन्त एमसि ॥७॥
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राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
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वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥
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स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव ।
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सचस्वा नः स्वस्तये ॥९॥
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